Ram and Ravan : रावण का अंत :- युद्ध का अंतिम दिन था । देवराज इन्द्र के द्वारा भेजे हुये रथ को स्वीकार करते हुये श्री राम ने इसके लिये देवराज इन्द्र का आभार माना । रथ पर सवार होने से पहले उन्होंने हाथ जोड़ कर उसको प्रणाम करते हुये पहले उसका विधि वत् पूजन किया।
उषा सक्सेना
रथ में जोते गये अतुल पराक्रमी अश्वों का पूजन कर सारथि मातुलि को नमन कर सब प्रकार से संतुष्ट होकर प्रसन्न चित्त हो रथ की परिक्रमा कर देवों को प्रणाम करते हुये उस पर सवार हुये। उनके रथ पर सवार होते हीआकाश से देवताओं ने हर्षित होकर उन पर फूल बरसाये। वानर सेना ने तुमुल नाद करते हुये राक्षस सेना पर आक्रमण कर दिया ।
राम और रावण का अंतिम युद्ध
अब राम और रावण का अंतिम युद्ध था । राम के साथ युद्ध प्रारंभ होते ही रावण ने देवराज इन्द्र को धिक्काते हुये रथ पर आग्नेयास्त्र को चलाया जिसे राम ने देवास्त्र से बुझा दिया। तब रावण ने क्रोधित होकर सर्पास्त्र चलाया जिसे राम ने गरुड़ास्त्र को चला कर शांत कर दिया। अब रावण ने मेघास्त्र चला कर भंयकर वर्षा की तो इसके प्रत्युत्तर में राम ने भी वायवास्त्र चला कर वायु के प्रचण्ड वेग से ही बादलों को तितर बितर कर दिया।
राम ने रावण को जो कि आकाश मार्ग पर अपने रथ को ले जाकर युद्ध कर वानर सेना का संहार कर रहा था , अपने रथ को भी उसी के समानान्तर ले जाने का सारथि को आदेश देकर युद्ध किया। यह देख रावण ने राम के रथ पर लगी ध्वजा एवं छत्र को नष्ट कर सारथि पर ही आक्रमण कर दिया जिससे ध्वज और छत्र के साथ ही सारथि भी मूर्च्छित हो गया यह देख रथ को जमीन पर गिरने से पहले ही हनुमान जी ने राम को अपने कंधे पर बिठा लिय। इस तरह हनुमान जी के कंधे पर सवार हुये राम और रथ पर बैठे रावण का युद्ध चल रहा था, रावण के सभी अस्त्र-शस्त्रों का वह बलपूर्वक प्रतिकार करते हुये अपने दिव्यास्त्रों से उन्हें काट रहे थे। अचानक रावण ने हनुमान जी की छाती पर अपनी गदा से प्रहार किया जिससे हनुमान जी को मूर्च्छा आ गई और वह जमीन पर गिरें इसके पहले ही उनकी चेतना जागृत हो गई। रणांगण में उतर कर अब राम ने रावण पर भीषण प्रहार करते हुये उसके दसों सिर और भुजायें काट डाली। यह क्या ? क्षण मात्र में ही रावण अट्टहास करता” मुझे राम ने मारा” कहता सामने खड़ा था। जितनी बार भी वह उसका वध करते रावण उतनी ही बार हंस कर उनके सामने युद्ध करने खड़ा हो जाता।
रावण की नाभि में था अमृत कुंड
अब राम ने विभीषण की ओर देखते हुये उनसे इसका कारण जानना चाहा । विभीषण ने कहा-“प्रभू!इसकी नाभि में अमृत कुंड है जिससे यह पुनर्जीवित हो जाता है पहले आप इसके अमृत कुंड को समाप्त करिये तभी यह मृत्यु को प्राप्त होगा”। श्री राम ने आदित्य स्त्रोत का पाठ करते हुये सूर्य देव की ओर देखा और अगस्त्य मुनि द्वारा दिये हुये दिव्यास्त्र का स्मरण कर रावण की नाभि को लक्ष्य कर आग्नेयास्त्र चला दिया जिसने क्षण मात्र में रावण के नाभि कुंड को सोख लिया। तब तक मातलि रथ लेकर देवी शची द्वारा भेजा हुआ काली मंत्र से अभिमंत्रित वह तीर लेकर आ गये जो उन्होंने राम को दिया। राम ने देवी का स्मरण करते हुये उस तीर को रावण पर चला दिया जिससे रावण के नौ सिर और हाथ एक साथ कट कर भूमि पर गिरे। अब उसका केवल एक ही सिर और दो हाथ थे जो घायल हो कर रणांगण में भूमि पर पड़ा था। राक्षस सेना समाप्त हो चुकी थी इधर रावण भी जीवन की अंतिम सांसे गिन रहा था। वानर सेना ने विजय का उद्घोष करते हुये तुमुल नाद किय। देवताओं ने भी रावण की मृत्यु पर हर्ष प्रकट करते हुये श्रीराम पर फूलों की वर्षा की।
विभीषण अपने भाई की मृत्यु सन्निकट देख कर दु:खी हो उसके पास बैठे विलाप कर रहे थे। राम ने युद्ध स्थल में ही लक्ष्मण से कहा -” भाई रावण राजनीति और ज्ञान का प्रकाण्ड विद्वान था। मैं नही चाहता कि यह ज्ञान उसके साथ ही इस संसार से विलुप्त होजाये। अत:तुम जाकर उससे इस ज्ञान को प्राप्त करो। अपने अंतिम क्षणों में व्यक्ति न किसी का मित्र होता है और न शत्रू वह तुम्हें अवश्य अपना ज्ञान देगा “।
राम जब रावण के शिष्य बनें
राम के आदेश पर लक्ष्मण रावण के समीप गये और सिर के पास खड़े होकर उसे नमस्कार कर कहने लगे कि -” हे रावण !आप मुझे वह ज्ञान दीजिये जो आपके पास है ।”लक्ष्मण कि बात सुन रावण मौन रहा उसने केवल एक बार नेत्र खोलकर उनकी ओर देख पुन:बंद कर लिये । यह देख कर लक्ष्मण जी को क्रोध आया और वह बड़बड़ाते हुये राम के पास वापिस आ गये। राम ने पूछा -“क्या कहा रावण ने?”लक्ष्मण जी बोले- “उसने कुछ भी नही कहा ।”राम ने फिर कहा -तुम कहां खड़े होकर प्रश्न कर रहे थे। लक्ष्मण जी बोले – “सिर के पास “। राम रावण के कुछ न कहने की बात समझ गये और उठ कर स्वयं चल दिये रावण के पास। उसके पैर के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुये कहने लगे -आप जैसे महाज्ञानी का वध मेरे हाथों हुआ इसका मुझे दु:ख है। शायद भाग्य को यही मंजूर था कि मैं अपनी पत्नी की रक्षा के लिये आपसे युद्ध करूं। इस संसार में आप जैसे महाज्ञानी दुर्लभ हैं। मैं नही चाहता कि इस संसार से आपके साथ आपका ज्ञान भी विदा ले। अत:मुझे अपने शिष्य के रूप में ही अंत में स्वीकार कर अपना ज्ञान दीजिये जिससे वह इस संसार में रहे,सबका हित हो ।
डिस्क्लेमर: इस आलेख में दी गई जानकारी सामान्य संदर्भ के लिए है और इसका उद्देश्य किसी धार्मिक या सांस्कृतिक मान्यता को ठेस पहुँचाना नहीं है। पाठक कृपया अपनी विवेकपूर्ण समझ और परामर्श से कार्य करें