Gupt Navratri: षष्ठ महाविद्या माँ छिन्नमस्ता, शाक्त सम्प्रदाय की तांत्रिक देवी मानी जाती हैं जो अपना बलिदान देकर भी अपनी सहचरी योगीनियों की अपने ही रक्त से क्षुधा शांत कर उन्हें तृप्ति का अनुभव कराती हैं और मध्य की रक्त धारा का स्वयं पान करती हुई अपने आपको भी जीवंत रखती है। ऐसी माँ छिन्न मस्ते के चरणों में सादर नमन। गुप्त नवरात्रि का पंचम दिवस दश महाविद्याओं में छठवीं महाविद्या देवी *छिन्नमस्ता * का है। जिनका संबंध महा प्रलय से है। प्रलय के बाद ही तो नवसृष्टि का सृजन होगा वृद्धि होगी और फिर उसका भी अंत। सृष्टि के इसी रहस्य की अभिव्यक्ति हैं छिन्नमस्ता। कुंडलिनी रहस्य का भेदन करती देवी का स्वरूप अत्यंत गोपनीय है। जिसने उनके इस रहस्य को समझ लिया उसके लिये सत्य क्या है ? इस का उत्तर देती मृत्यु ही तो जीवन का परम सत्य है। जिसके बाद नवसृजन होता है। तामसी गुणों से युक्त होने के कारण इनकी पूजा और साधना में विशेष ध्यान रखा जाता है। देवी का रूप छिन्नमस्तिक के रूप में प्रचंड चण्डिका है ।
कुंडलिनी रहस्य का भेदन करती देवी का स्वरूप अत्यंत गोपनीय है
*छिन्न+मस्तिका*अर्थात जिनका सिर धड़ से अलग हो, ऐसी देवी का स्वरूप काम और रति जिनके पद तले है। कमल आसन पर खड़ी देवी के एक ओर सखी जया का योगिनी डंकनी रूप है तो दूसरी ओर विजया का वारिणी योगिनी रूप। मध्य मे देवी छिन्न मस्ता एक हाथ में खड़्ग और दूसरे हाथ में केश सहित अपने सिर को पकड़े रक्तरंजित लहू टपकता स्मित हास लिये तीनों नेत्र खोले मस्तक पर मुकुट विराजे सुंदर मुख, धड़ से बहती रक्त की तीन धारायें हाथ में खप्पर लिये दोनों योगिनियों के खप्पर में गिर कर उनकी प्यास बुझा कर क्षुधा शांत करती और तीसरी मध्य की धारा का स्वत: अपने ही धड़ से उसका पान करती। मस्तक कट जाने पर देवी का यह जीवित स्वरूप भी अपने आप में अद्भुत है। कोई माता ही अपनी संतान की क्षुधा शांत करने के लिये ऐसा कर सकती है इसीलिये तो माता महान है। उससे बड़ा कभी कोई हो भी तो नही सकता। माता का त्याग सर्वोपरि है ।
कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती जी मंदाकिनी नदी में अपनी सहचरी जया और विजया के साथ स्नान करने आईं। स्नान में देर होने से जया और विजया ने कहा-“माँ हमें भूख लगी है जल्दी से कुछ खाने को दो “। यह सुनकर देवी पार्वती ने उन्हेें सांत्वना देते हुये कहा :-“रुको घर चलकर भोजन का प्रबंध करती हूंँ “। यह सुनकर जया और विजया उनका उपहास करते हुये कहने लगीं-तुम कैसी माँ हो ? हमें बहुत जोर की भूख लगी है चाहे कुछ भी हो कहीं से भी हमें तो इसी वक्त भोजन चाहिये अब यह क्षुधा हमें क्षुब्ध कर रही है। तुम सारे संसार की माँ हो कर सभी का पालन करती हो परंतु हम भूखे हैं और भूख से त्रस्त हो रहे हमारे लिये भी कहीं से कुछ भी व्यवस्था करो पर अब हम और अधिक देर भूखे नही रह सकते ” देवी ने उनकी ओर निहारते हुये कहा -युद्ध में इतने दैत्यों का रक्तपान करने के बाद भी तुम दोनों की क्षुधा शांत नही हुई तो अब मेरा ही रक्त पीकर अपनी क्षुधा शांत कर तृप्त है जाओ। कहते हुये उन्होंने बांये हाथ से अपने सिर के केश पकड़ कर दाहिने में खड्ग ले अपनी गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। अब देवी के हाथ में अपना रक्त रंजित मुंड था जिससे लहू टपक रहा था। एक ओर जया योगिनी डंकिनी के रूप में हाथ में खप्पर लिये रक्त पान कर रही थी तो दूसरी ओर विजया वारिणी योगिनी का रूप धारण कर रक्त पान कर रही थी तीसरी मध्य की धारा धड़ के अंदर ही गिर कर देवी को जीवंत किये था। अपने बलिदान से अपनी ही सहचरियों की क्षुधा शांत करता मांँ का यह छिन्नमस्ता रूप अपने आप में अद्भुत है ।
मानव के अंदर कुंडलिनी रहस्य को अपने आप में छिपाये देवी का यह आख्यान गुप्त रहस्य को रहस्यमय ढंग से प्रकट करता है। मूलाधार में स्थित काम और रति के माध्यम से लसनाओं का जाग्रत होना। इड़ा और पिंगला नाड़ियों के द्वार उनका सिंचन करती सुषुम्ना नाड़ी उस विचार को धड़ से आगे मस्तिष्क तक न जाने देकर वहीं रोक कर अपने ही अंतस में उसको पी लेती है। मस्तिष्क में तो सदाशिव का वास है उसे वासनाओं से दूषित कैसे करें। अद्भुत ज्ञान छिपा है इसमें। यह देवी जीवन के परम चक्र को दर्शाती है। काम और रति के सहयोग से सृजन उसके बाद उसकी वृद्धि और अंत में लय। यही तो जीवन का रहस्य है। देवी छिन्न मस्ता का शक्तिपीठ झारखंड के रजरप्पा स्थान में भैरवभेड़ एवं दामोदर नदी के संगम पर स्थित दुनिया का सबसे बडा शक्तिपीठ है ।
दूसरा मंदिर मध्यप्रदेश के दतिया जिले के बड़ौन कस्बे में है। यह पहले तांत्रिक भूमि थी । सत्य, जिसका स्थान मस्तिष्क है अपनी सोच और मस्तिष्क को अपने नियंत्रण में रखो उसे वासनाओं से लिप्त मत होने दो यही ज्ञान देती हैं माता छिन्नमस्ता ।
उषा सक्सेना-
डिस्क्लेमर: इस आलेख में दी गई जानकारी सामान्य संदर्भ के लिए है और इसका उद्देश्य किसी धार्मिक या सांस्कृतिक मान्यता को ठेस पहुँचाना नहीं है। पाठक कृपया अपनी विवेकपूर्ण समझ और परामर्श से कार्य करें।