Share Market Crash : कॉमर्स स्नातक होने के बावजूद मैं दावे से नहीं कह सकता कि मुझे अर्थशास्त्र की थोड़ी बहुत भी समझ है। मगर गोद में बैठी बिल्ली के अहसास को आंखों की कोई खास जरूरत रह ही कहां जाती है। बिल्ली के होने का अहसास क्या इसकी म्याऊं म्याऊं और कोमल बदन से ही नहीं हो जाता? कुछ कुछ यही स्थिति देश की अर्थव्यवस्था को लेकर आजकल मेरी हो रही है।
रवि अरोड़ा
बेशक आर्थिक मामलों को समझने के लिए हम सामान्य भारतीय अभी उतने परिपक्व नहीं हैं, मगर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, उससे तो आशंकाओं के बादल घिर घिर आ रहे हैं। पिछले साल सितंबर माह में शेयर बाजार का सेंसेक्स 85 हजार 836 के चरम पर था, मगर अब गोते लगाता लगाता 73 हजार तक पहुंच गया है। सितंबर में मार्केट पांच ट्रिलियन से अधिक था जो अब लगभग सवा ट्रिलियन घट गया है। अकेले फरवरी माह में निवेशकों को चालीस लाख करोड़ का घाटा हुआ है। मुल्क में दस करोड़ से अधिक निवेशक बताए जाते हैं और यदि म्यूचवल फंड और एलआईसी के निवेशकों को भी जोड़ लें तो यह संख्या और अधिक बड़ी हो जाएगी। ये सभी निवेशक अब सिर धुन रहे हैं, मगर इनकी खैर खबर कोई नहीं ले रहा।
सरकार चुप हैं, मीडिया खामोश है और नेता भी मुंह में दही जमाए बैठे हैं। यह याद रखने वाली बात है कि 2024 के चुनाव परिणाम आने से पहले गृह मंत्री अमित शाह ने देशवासियों को सलाह दी थी कि शेयर बाजार में पैसा लगाइए क्योंकि चार जून को परिणाम आने के बाद शेयर बाजार में जबरदस्त उछाल आएगा। कुछ ऐसी ही बात मोदी जी ने भी कही थी और उसी के फलस्वरूप लोगों ने बाजार में बढ़ चढ़ कर निवेश भी किया था, मगर पता नहीं क्यों बाजार डूबने पर अब ये दोनों नेता भी चुप्पी साधे बैठे हैं।
पता नहीं देश में फिर से कोई हर्षद मेहता पैदा हो गया है अथवा छोटे-छोटे कई हर्षद मेहता सक्रिय हो गए हैं। कुछ तो गड़बड़ है, जिसका खुलासा होना अभी बाकी है। जाहिरी तौर पर बेशक अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और उनकी नीतियों पर सारा ठीकरा फोड़ा जाएगा, मगर देश के भीतर भी क्या क्या खुराफातें हुई है, उनकी बात भी कोई करेगा क्या? क्या अब से पूर्व पहले कभी किसी प्रधानमंत्री अथवा गृह मंत्री ने शेयर बाजार में पैसा लगाने की सलाह जनता को दी है? यदि नहीं, तो क्या अब इस डूबते बाजार पर उनकी प्रतिक्रिया की उम्मीद करना भी बेजा है? यकीनन मोदी जी के कार्यकाल की अनेक उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं, मगर अर्थव्यवस्था के स्तर पर उनका क्या एक भी फैसला जनोपयोगी साबित हुआ है?
मनमोहन सिंह के दस वर्ष के कार्यकाल में देश की जीडीपी औसतन 7.7 थी। जबकि तमाम बड़े बड़े दावों के बावजूद 10 साल के मोदी शासन में जीडीपी का औसत 5.9 ही रहा। मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक देश पर कुल 55 लाख करोड़ का कर्ज था जो मोदी के शासन में 155 लाख करोड़ तक पहुंच गया है। आज देश का कर्ज जीडीपी का 56 फीसदी है, जो पहले कभी नहीं था । खबरें बता रही हैं कि भारत अब दुनिया का सातवां सबसे बड़ा कर्जदार देश है। दिल्ली की गद्दी संभालने की आतुरता में 2014 से पहले मोदी जी डॉलर की गिरती कीमत के बारे में अनेक चुटकियां लेते थे, मगर उनके कार्यकाल में डॉलर की कीमत 59 से गिरते गिरते अब 87 रुपए को पार कर गई है।
विशेषज्ञ बता रहे हैं कि इसी साल यह सौ को पार कर जाए तो कोई हैरत नहीं। उधर, महंगाई के मोर्चे पर भी सरकार फिसड्डी साबित हुई है। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में गैस का सिलेंडर 410 रुपए था जो अब 11 सौ रुपए है। कच्चा तेल कमोवेश सस्ता होने के बावजूद पैट्रोल की कीमत भी 71 रुपए से 96 रुपए तक पहुंच गई। बाकी चीजों का भी यही हाल है।
आज जब शेयर बाजार का गुब्बारा एक बार फिर फूट चुका है, क्या यह समीक्षा नहीं होनी चाहिए कि इसका फायदा किसे और नुकसान किसे हुआ ? क्या यह खुलासा नहीं होना चाहिए कि आगामी दो अप्रैल के बाद जब अमेरिका अपने आयात पर नया शुल्क लगाएगा , उसके बाद भारत में जो आर्थिक तूफान आएगा, उससे बचाव को सरकार ने क्या योजनाएं बनाई हैं? आज जब विदेशी निवेशकों में भारत से अपना धन निकाल कर चाइना ले जाने की होड़ सी मची है, उसे थामने को क्या कदम उठाए जा रहे हैं ?
यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है और सबको पता है कि जैसे-जैसे रुपया गिरेगा वैसे वैसे विदेशी निवेश और कम होगा, महंगाई भी बढ़ेगी। क्या सरकार का यह दायित्व नहीं है कि ऐसी चिंताओं पर वह अपनी जनता को विश्वास में ले? चलिए यह भी जाने दीजिए, मगर कम से कम सरकार को यह तो बताना ही चाहिए कि अपनी सारी दौलत गंवा कर अवसादग्रस्त निवेशक और ब्रोकर पहले की तरह फिर आत्महत्या को प्रेरित न हों। इसके लिए सरकार क्या कर रही है? कुछ तो ऐसा करे जिससे पता चले कि सरकार तमाशबीन नहीं है।
Disclaimer : इस लेख में व्यक्त विचार पूरी तरह लेखक के अपने निजी विचार हैं।