
भावना शेखर
Pitru Paksha : हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता है। श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा को अजर- अमर और देह को मरणशील माना गया है।
दार्शनिकों के अनुसार यह संसार मृत्युलोक कहलाता है। मृत्यु के उपरांत आत्मा शरीर छोड़ देती है और सूक्ष्मशरीर के रूप में पितृलोक में रहने लगती है। पितृलोक के ऊपर सूर्यलोक और उसके ऊपर सबका अभीष्ट स्वर्गलोक है। स्वर्गलोक जाने से पहले पितृलोक में आत्मा अपने कर्मों के अनुसार एक वर्ष से लेकर सौ वर्षों तक रहती है। एक प्रकार से इसे वेटिंग हॉल कहा जा सकता है, जहां दूसरा जन्म लेने से पहले आत्मा को प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
सूक्ष्मशरीर में रहने वाला आत्मा ‘प्रेत’ कहलाता है। प्रेत का अर्थ है- प्रिय के अतिरेक की अवस्था यानि इस अवस्था मे वह भूख- प्यास और अपने प्रियजनों से मोहमाया को नहीं छोड़ पाता। इन्ही की प्राप्ति के लिये आत्माएं पन्द्रह दिन के लिये भूलोक पर आती हैं। यह पन्द्रह दिनों का पक्ष ही पितृपक्ष कहलाता है। जो भाद्रपद पूर्णिमा के बाद आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक चलता है।
अतृप्त पितर दुखी होकर श्राप दे सकते हैं
गरुड़ पुराण के अनुसार इस समय (Pitru Paksha) में हमारे पूर्वज अपने अपने घरों के आस पास मंडराते हैं। वे अतिथि, भिक्षुक, आगन्तुक, पशु पक्षी या किसी भी जीव के रूप में अपनी संततियों के सामने आते हैं। जो उनका श्राद्ध करते हैं, उनके पितर प्रसन्न होकर अपनी सन्तान पर आशीष बरसाते हैं किंतु असन्तुष्ट रहने की स्थिति में अतृप्त पितर दुखी होकर श्राप दे सकते हैं, जिसे पितृदोष कहते हैं। पितृदोष के परिणामस्वरूप परिवार में अशांति, रोग, निर्धनता , व्यापार में हानि, सन्तानहीनता आदि कष्ट आ जाते हैं। अतः पितृपक्ष में हर हिन्दू को अपने पुरखों को खुश करने के लिए सारे विधि विधान करने चाहिए।
श्राद्ध जो श्रद्धा से किया जाए
श्राद्ध और तर्पण इसके लिए मुख्य करणीय कार्य हैं। श्राद्ध का अर्थ है “श्रद्धया दीयते इति” अर्थात जो श्रद्धा से किया या दिया जाए। हिन्दू अपने अपने पूर्वज की मृत्यु तिथि पर ही तर्पण और ब्राह्मण भोज कराते हैं। इस समय ब्राह्मण के अतिरिक्त गौ, कुत्ते और कौए को भी खिलाया जाता है, न जाने किस रूप में पुरखे आ जाएं यह सोचकर। जिनकी तिथि याद न हों, उनका श्राद्ध तर्पण अमावस्या को किया जाता है।
श्राद्ध में काले तिल का प्रयोग अनिवार्य है। पिंडदान में बाएं हाथ के अंगूठे से जल छोडने का विधान है। जबकि देव सम्बन्धी सारे शुभ कार्य दाएँ हाथ से सम्पादित किये जाते हैं। मध्याह्न में ब्राह्मण को कराए जाने वाले भोजन में खीर, पूरी के साथ उड़द, अदरक का समावेश आवश्यक है। भोजन के बाद सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा के साथ वस्त्र, बर्तन आदि देने का प्रचलन है। आज के व्यस्त जीवन मे नई विचारधारा के लोग जो शास्त्रीय विधानों से अनभिज्ञ हैं, अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए मृतात्मा का पसन्दीदा भोजन गरीबों को खिलाते हैं। ऐसा भोजन दान भी श्राद्ध का आधुनिक और व्यावहारिक रूप है।
अपने पुरखों को विस्मृत न करें
पितृपक्ष में कुछ व्यवहार वर्जित हैं जैसे नए वस्त्र खरीदना या पहनना, बासी भोजन और मांस मदिरा का सेवन, झूठ और अनैतिक काम करना। हिंदुओं की इस सदियों पुरानी धार्मिक परम्परा का व्यावहारिक पक्ष यह है कि हम अपने पुरखों को विस्मृत न करें। भले ही पूजा पाठ या कर्मकांड ना करें किंतु उनके सम्मान में वर्ष के पन्द्रह दिन मनसा वाचा कर्मणा सदाचार का पालन करें। दीन दुखियों गरीबों को दान करें, भोजन कराएं।
पितृपक्ष माता पिता और पुरखों के प्रति नयी पीढ़ी की सम्वेदनाओं का सम्प्रेषण
आज जब संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, पीढ़ियों में टकराव हो रहा है, जीवन मूल्य बदल रहे हैं, बुज़ुर्गों की उपेक्षा हो रही है, महानगरों में माता पिता को ओल्ड एज होम में ढकेला जा रहा है। ऐसे में हमारी परम्पराएं टूटती सम्वेदनाओं पर श्लेष का काम करती हैं। दरकते रिश्तों को जोड़ती हैं, दिल के घावों पर मरहम लगाती हैं। दिन रात झूठ फरेब की दलदल में आकंठ डूबे लोगों के लिए पन्द्रह दिनों की शुद्धि बेला है जब वे अपने अन्तःकरण को सत्य, परोपकार, सहानुभूति और त्याग के जल से धो सकते हैं।
जो परम्पराएं रूढ़ि बन जाएं उन्हें तोड़ देना बेहतर है पर कुछ परम्पराएँ समाज की बिगड़ती सेहत के लिए अचूक औषधि का काम करती हैं। पितृपक्ष माता पिता और पुरखों के प्रति नयी पीढ़ी की सम्वेदनाओं का सम्प्रेषण है। यह परम्परा टूटनी नहीं चाहिए।
डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त विचार पूरी तरह से लेखिका के व्यक्तिगत विचार हैं। इनमें दी गई जानकारी सामान्य संदर्भ के लिए है और इसका उद्देश्य किसी धार्मिक या सांस्कृतिक मान्यता को ठेस पहुँचाना नहीं है। पाठक कृपया अपनी विवेकपूर्ण समझ और परामर्श से कार्य करें।