Pakistan in United Nations: संयुक्त राष्ट्र की आतंकवाद विरोधी समितियों में पाकिस्तान का सम्मिलित होना विश्व व्यवस्था की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न उठाता है। जिस देश को आतंकी संगठनों को शरण देने और धन उपलब्ध कराने के कारण वर्षों तक निगरानी सूची में रखा गया, वही आज नीतिनिर्माण में भागीदार है। भारत के लिए यह केवल सुरक्षा नहीं बल्कि कूटनीतिक चुनौती भी है। इसका समाधान बहुआयामी नीति में निहित है—कूटनीतिक सक्रियता, अंतरराष्ट्रीय सहयोग, गुप्तचर साझेदारी, सीमापार सुरक्षा और आंतरिक वित्तीय क़ानूनों की सुदृढ़ता। भारत को अपनी रक्षा सुनिश्चित करते हुए विश्व पटल पर आतंकवाद विरोधी नेतृत्वकारी भूमिका निभानी होगी।
— डॉo सत्यवान सौरभ
संयुक्त राष्ट्र को विश्व शांति और सुरक्षा का सबसे बड़ा मंच माना जाता है। विशेषकर आतंकवाद-रोधी समितियाँ अंतरराष्ट्रीय सहयोग का केंद्र बिंदु हैं। किंतु हाल ही में पाकिस्तान का इन प्रमुख समितियों में शामिल होना न केवल विसंगति है, बल्कि यह पूरे वैश्विक आतंकवाद-रोधी ढाँचे की विश्वसनीयता पर गहरे प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। जिस देश को वर्षों तक आतंकवाद के संरक्षक, पोषक और निर्यातक के रूप में पहचाना गया, वही आज नीति-निर्माण की मेज पर बैठा दिखाई दे रहा है। यह परिघटना न केवल भारत जैसे आतंकवाद से पीड़ित देशों के लिए चिंता का विषय है, बल्कि पूरी वैश्विक सुरक्षा प्रणाली के लिए एक गंभीर चुनौती है।
पाकिस्तान को दशकों से आतंकवाद का प्रायोजक राष्ट्र माना जाता रहा है। संयुक्त राष्ट्र, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स तथा अनेक अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ बार-बार यह तथ्य उजागर कर चुकी हैं कि पाकिस्तान की भूमि का प्रयोग जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और हक्कानी नेटवर्क जैसे संगठनों द्वारा किया जाता है। इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान को आतंकवाद-रोधी समितियों का हिस्सा बनाना आत्मविरोधाभासी कदम प्रतीत होता है। यह उस व्यवस्था का मज़ाक है जिसमें अपराधी ही न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठ जाए।
संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंध सूची में कई पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों और व्यक्तियों के नाम दर्ज हैं। फिर भी वे खुलेआम राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियाँ चलाते हैं। हाफिज़ सईद और मसूद अजहर जैसी हस्तियाँ बार-बार प्रतिबंधों को चकमा देती रही हैं और सरकार की संरक्षण में अपने नेटवर्क का विस्तार करती रही हैं। यह असमान प्रवर्तन वैश्विक ढाँचे की कमजोरी को उजागर करता है। जब तक आतंकवाद के खिलाफ प्रतिबंधों और दंडों का एकसमान और कठोर प्रवर्तन नहीं होगा, तब तक यह पूरी प्रणाली खोखली ही मानी जाएगी।
यह भी स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र की समितियों में सदस्यता या नियुक्ति केवल आतंकवाद-रोधी योग्यता के आधार पर नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक समीकरणों के आधार पर होती है। चीन द्वारा पाकिस्तान का बार-बार समर्थन, अमेरिका द्वारा सामरिक कारणों से चुप्पी और इस्लामी देशों की एकजुटता—ये सभी कारक पाकिस्तान को वह वैधता प्रदान करते हैं, जिसकी उसे वैश्विक स्तर पर आवश्यकता होती है। इस प्रकार राजनीति, सुरक्षा और कूटनीति के दबाव में आतंकवाद विरोधी तंत्र अपनी मूल आत्मा से भटक जाता है।
संयुक्त राष्ट्र की समितियाँ निर्णय तो लेती हैं, लेकिन उनका पालन करवाने के लिए कोई कठोर तंत्र नहीं है। इस कारण सदस्य देश प्रतिबंधों का उल्लंघन करते हुए भी बच निकलते हैं। पाकिस्तान का मामला इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है। कई बार भारत ने ठोस सबूत प्रस्तुत किए, कई बार अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने रिपोर्ट जारी कीं, परंतु किसी ठोस और स्थायी कार्रवाई का अभाव ही दिखा।
भारत के लिए यह स्थिति कई स्तरों पर खतरा और चुनौती लेकर आती है। सीमा पार आतंकवाद का खतरा तो स्थायी रूप से बना ही रहता है। कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर में लंबे समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने शांति को प्रभावित किया है। अब यदि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र की समितियों में बैठकर अपने अपराधों को वैधता दिलाने का प्रयास करेगा तो भारत की सुरक्षा और कूटनीति दोनों के लिए समस्या उत्पन्न होगी।
यह भी संभव है कि पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति से भारत की शिकायतों को अपेक्षित समर्थन न मिले। कूटनीतिक हाशियाकरण की स्थिति बन सकती है, जहाँ भारत की आतंकवाद संबंधी आवाज को पर्याप्त महत्व न दिया जाए। अंतरराष्ट्रीय सहयोग की दिशा भी प्रभावित हो सकती है, क्योंकि अब पाकिस्तान उन समितियों का हिस्सा है जहाँ पर आतंकवाद से संबंधित निर्णय लिए जाते हैं। यह भारत द्वारा साझा की गई खुफिया जानकारी या अभियानों को लेकर विश्वास और सहयोग को कमज़ोर कर सकता है।
घरेलू सुरक्षा पर भी इसका सीधा दबाव पड़ेगा। पाकिस्तान के आतंकवादी नेटवर्क केवल सीमा पार से ही नहीं, बल्कि साइबर माध्यमों, वित्तीय चैनलों और ड्रग्स-तस्करी के जरिये भी भारत की आंतरिक सुरक्षा को प्रभावित कर रहे हैं। यदि उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर वैधता मिलती है तो उसके लिए इन गतिविधियों को और अधिक गुप्त रूप से चलाना आसान हो जाएगा।
इन चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत को बहुस्तरीय रणनीति अपनानी होगी। सबसे पहले कूटनीतिक आक्रामकता ज़रूरी है। भारत को हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान के आतंकवाद-प्रायोजन की पोल खोलनी होगी। FATF में सक्रिय भूमिका, UN महासभा में भाषणों के माध्यम से और G20 जैसे मंचों पर पाकिस्तान की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाना ज़रूरी होगा।
भारत को लंबे समय से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग करते हुए यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि आतंकवाद-रोधी समितियों में सुधार हो। सदस्यता योग्यता और जवाबदेही आधारित होनी चाहिए, न कि केवल राजनीतिक सौदों पर।
खुफिया सहयोग और तकनीकी साझेदारी भारत की एक और प्राथमिकता होनी चाहिए। अमेरिका, फ्रांस, इज़राइल और खाड़ी देशों जैसे सहयोगियों के साथ आधुनिक निगरानी तकनीक, साइबर सुरक्षा उपकरण और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित आतंकवाद-रोधी उपायों को साझा करना भारत को मजबूती देगा। सीमापार अभियानों और सुरक्षा बलों की मजबूती भी आवश्यक है। 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 की एयर-स्ट्राइक ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अपनी सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करेगा। सीमा पर हाई-टेक निगरानी तंत्र, ड्रोन और स्मार्ट फेंसिंग को और मजबूत करना समय की आवश्यकता है।
घरेलू स्तर पर आतंकवाद को वित्तपोषण से रोकना सबसे प्रभावी उपाय होगा। UAPA और मनी लॉन्ड्रिंग कानूनों को और कठोर बनाते हुए NGO और हवाला चैनलों की निगरानी मजबूत करनी होगी। इसके साथ ही रणनीतिक गठबंधन भी ज़रूरी हैं। भारत को क्वाड, ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन और द्विपक्षीय समझौतों में आतंकवाद विरोधी मुद्दों को प्राथमिकता देकर पाकिस्तान की दोगली नीति को वैश्विक मंच पर उजागर करना चाहिए।
भारत को वैश्विक दक्षिण यानी अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के विकासशील देशों को भी साधना होगा। उन्हें यह समझाना ज़रूरी है कि आतंकवाद केवल किसी एक क्षेत्र का संकट नहीं है, बल्कि यह विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और स्थिरता की सबसे बड़ी बाधा है। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र आज तक आतंकवाद की सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं कर सका है। भारत को इस दिशा में नेतृत्व करना चाहिए ताकि “अच्छा आतंकवाद” और “बुरा आतंकवाद” जैसे दोहरे मानदंड समाप्त हों।
पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति भी भारत के लिए अवसर है। पाकिस्तान आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता और सैन्य-नागरिक टकराव से जूझ रहा है। भारत को इन परिस्थितियों का कूटनीतिक और रणनीतिक रूप से लाभ उठाना चाहिए ताकि पाकिस्तान की दोगली छवि उजागर होती रहे।
संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का आतंकवाद-रोधी समितियों में शामिल होना निश्चित ही वैश्विक ढाँचे की विश्वसनीयता पर गहरा प्रश्नचिह्न है। यह केवल भारत ही नहीं, बल्कि उन सभी देशों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए जो आतंकवाद के शिकार हैं। भारत के सामने चुनौती यह है कि वह अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हुए वैश्विक मंचों पर आतंकवाद विरोधी अभियान की नैतिक और वैचारिक अगुवाई करे। भारत को कूटनीति, खुफिया सहयोग, कानूनी सुधार, सैन्य तैयारी और रणनीतिक गठबंधनों के माध्यम से बहुस्तरीय रणनीति अपनानी होगी। तभी पाकिस्तान की दोहरी नीति और वैश्विक ढाँचे की कमजोरी दोनों को एक साथ उजागर कर भारत अपनी सुरक्षा और प्रतिष्ठा की रक्षा कर सकेगा।
Disclaimer: लेख में व्यक्त सभी विचार लेखक के अपने निजी विचार हैं।