Navratri 2024: बुंदेलखंड का गौरव पूर्ण इतिहास भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना का एक अहम अध्याय रहा है। आदिम युग से विंध्याचल पर्वत की तलहटी मे बसे वन्य क्षेत्र, ऊबड़ खाबड़ ऊंची नीची कंकरीली पथरीली राहें और घनें जंगल इसके गवाह हैं। इन जंगलों के बीच रहने वाले आदिवासी गौड़, भील, कोल और किरात आदि जातियां आज भी इस भूभाग की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को जीवंत रखे हुई हैं। इस क्षेत्र के रहने वालों की पहचान डंगाई और बनाफर आदि नामों से होती थी । डंगाई का अर्थ ही है जंगलों में रहने वाले । यहां की माटी में आदिम मानव की प्रवृतियों से जूझती संस्कृति आज भी जीवित है।
बुंदेलखंड की ‘मामुलिया नौरता’ और ‘सुअटा’ की दिलचस्प लोककथा
Navratri के अवसर पर इस क्षेत्र की एक पारंपरिक कथा ‘नौरता’ बार-बार ध्यान आकर्षित करती है। कोई नहीं जानता पुरातन काल से चली आ इस लोक कथा का जन्म कब और कहां से हुआ । नौरता इस क्षेत्र की कन्याओं द्वारा देवी को प्रसन्न करने के लिये उनसे शक्ति मांगती कुंआरी कन्याओं का देवी आराधना का अनुष्ठान है । जिसे नौ रात और दस दिन खेले जाने के कारण इसका नाम नौरता पड़ा । सुबह भोर के धुंधलके में ही सूरज उगने से पहले ही कुंआरी कन्यायें देवी आगमन में स्वागत के लिये घर के दरवाजे के चबूतरों को लीप कर उन पर विभिन्न रंगों के द्वारा अपनी कल्पना के माध्यम से सुंदर चौक पूर कर उनमें रंग भरकर उस अल्पना को सजाती । बाद में दीवार पर सुअटा नामक भूत राक्षस के विद्रूप रूप का माटी से पुतला बना उसे सजा कर उससे छुटकारा पाने के लिये उसकी पूजा कर उसे प्रसन्न करने की चेष्टा करतीं हैं।
इस कथा का वर्णन महाभारत मे आया है। जहां सोलह हजार कन्याओं का अपहरण कर उनको अपनी कैद में रखने वाले भौमासुर का श्री कृष्ण ने संहार किया था। भौमासुर नरक का अधिपति होने के कारण नरकासुर नाम से भी जाना जाता था। उसका वध कर श्री कृष्ण ने सभी सोलह हजार कन्याओं को उस राक्षस की कैद से मुक्ति दिलाई थी । बाद में उन सभी कन्याओं को उनके परिवार द्वारा न अपनाये जाने के कारण उन सभी कन्याओं के संग एक साथ ही श्रीकृष्ण ने विवाह कर उन्हें द्वारिका में अपने साथ राजभवन में रखा। इस विषय में कई आख्यान हैं।
नवरात्रि में लड़कियां करती हैं देवी की आराधना
क्षेत्रीय मान्यता के अनुसार यह सुअटा भी राक्षस था, जिससे मुक्ति पाने के लिये कन्यायें देवी की आराधना कर नौ दिन का अनुष्ठान करती हैं । उस राक्षस के पैर पखारकर उसका पूजन करतीं हैं। पास पड़ोस के लड़के टेसू का रूप धारण कर उस राक्षस का वध करते हैं। उसके बाद पांच दिन तक कन्यायें देवी की झिंझिया लेकर गीत गाती हुई खुशी से झिंझिया नचाती हुई घर घर मांगने जाती हैं। शरद पूर्णिमा के दिन सुअटा राक्षस का मरण भोज कर सबको प्रसाद बांटती हुई शरद पूर्णिमा की चांदनी रात्रि में किसी एक स्थान पर सामूहिक नृत्य करती हैं। जिसमें सभी बूढ़ी महिलायें लोक गीत गाते हुये अपने नारी जीवन की व्यथा कथा कहतीं हैं। पुरुषों का इस खेल को देखना वर्जित है।
नवरात्रि पर गाने वाले एक गीत की बानगी देखिए
“कैसे के मरी बृज नार कुंआ में गिर के शहर से आये थानेदार घोड़ी पे चढ़ के वह बृजनार कैसे मरी?” क्यों मरी किसने उसके साथ अनाचार किया जिसके कारण वह अपनी लाज बचाती आत्म हत्या कर लेती है। थानेदार आकर पूंछता पर कौन गवाही दे पूरा गांव मौन। यही तो व्यथा कथा है। आज भी इस समाज में नारी भक्षण के लिये कई राक्षस राह तकते बैठे ही रहते हैं।
शायद इसीलिए ही प्राचीन काल से कन्याओं को मां दुर्गा के रूप से शिक्षा प्राप्त करने के लिये उनके उदाहरण द्वारा शिक्षित करने का प्रयास किया जाता रहा। सामूहिक रूप में संगठित होकर अपनी आत्म शक्ति को जागृत कर दुर्गा का रूप धारण कर ही वह इनसे मुक्ति पा सकती है । इस खेल का मुख्य पात्र सुअटा राक्षस होने से इस खेल का नाम सुअटा पड़ा ।
नवरात्रि पर होती है सुअटा की पूजा और वध
नवरात्रि पर एक और कथा सुअटा दानव के नाम के साथ जुड़ी है। इसमें सुअटा मामुलिया का भाई है। मामुलिया एक देवी है। वह देवी कैसे बनी। यहां प्रचलित लोक कथा के अनुसार मामुलिया के साथ खेलने वाली सखियां जब भी मामुलिया के साथ खेलने के लिये मामुलिया के घर आती उसका भाई उनके साथ छेड़छाड़ करता। जिससे लड़कियों ने मामुलिया के साथ ख़ेलना और घर आना बंद कर दिया। इस सबके कारण मामुलिया को सभी के समक्ष बहुत अपमानित होना पड़ता। धीरे धीरे उसके भाई ने अपने घर में ही उन कन्याओं का अपहरण कर उनसे मनमाना व्यवहार शुरू कर दिया, वह अपनी पूजा करवा कर स्वयं उनका भगवान बनता।
एक दिन न जाने कैसे मामुलिया ने यह सब देख लिया उस दिन वह किसी कन्या की बलि देकर उसका रक्त पान करना चाह रहा था। मामुलिया ऐन वक्त पर उसको बचाने पहुंच गई और अपने भाई के खड्ग के वार को अपनी गर्दन पर ले लिया। सुअटा अपनी इकलौती बहिन को बहुत प्यार करता था। अपने इस कृत्य से वह दुखी होकर रोने लगा तब मामुलिया ने उसकी ही गोद में अपने प्राण त्यागते हुये कहा भाई यदि तू मुझे सच्चे दिल से प्यार करता है तो आज के बाद इन कन्याओं को सताना छोड़ दे। तू नही जानता तेरे इस कार्य से मेरा जीवन दूभर हो गया था। हर कोई मुझे ताना मारता तेरा भाई सुअटा ऐसा कह कर मुझे अपमानित करते थे सुअटा ने रोते हुये अपनी बहन को वचन दिया आज के बाद जो भी नवरात्रि में मेरे भूत का पुतला बना कर पूजेगा में उसे भूत बन कर भी कभी नही सताऊंगा।
तब से इस अनुष्ठान के माध्यम से कन्यायें उसका पूजन करती हैं और नवमी को उसका वध होता है। नवरात्रि के पूर्व पितृपक्ष में मामुलिया को देवी का रूप मान कर उसका पूजन किया जाता है। यही मामुलिया और सुअटा दोनों ही भाई बहिन की कथा है। दूसरों के लिये त्याग और बलिदान ने मामुलिया को देवी बना दिया वहीं पर उसका अपना भाई ही राक्षस बन गया।
ऊषा सक्सेना
डिस्क्लेमर: इस आलेख में दी गई जानकारी सामान्य संदर्भ के लिए है और इसका उद्देश्य किसी धार्मिक या सांस्कृतिक मान्यता को ठेस पहुँचाना नहीं है। पाठक कृपया अपनी विवेकपूर्ण समझ और परामर्श से कार्य करें।