Dr Kiran Martin: 1988 की तपती गर्मियों में दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में घातक हैजे की महामारी फैल गई थी। डॉ. अंबेडकर बस्ती—जहां अत्यधिक भीड़भाड़, संसाधनों की कमी और सरकारी ढांचा नदारद था—वहां एक युवा बाल रोग विशेषज्ञ आगे आईं। उनके पास केवल एक मेज, एक स्टेथोस्कोप और करुणा से भरा हुआ हृदय था। डॉ. किरण मार्टिन स्वयं पीड़ितों के बीच पहुँचीं, पेड़ के नीचे बीमारों का इलाज किया अपनी लगन और करुणा से स्लम बस्तियों में रहने वालों का प्यार और भरोसा जीत लिया।
इस महामारी से लोगों का बचाव करते-करते हुए वे स्लम बस्ती के लोगों की समस्याओं के साथ जुड़ती चली गई और उनके लिए किरण की उम्मीद बन गई। उन्होंने स्लम बस्ती के लोगों की पीड़ा और कठिनाइयों को गहराई से महसूस किया और वह उनकी समस्याओं को दूर करने में लग गईं।
यही अहसास था जिसने “आशा” (जिसका अर्थ है उम्मीद) को जन्म दिया। 1988 में स्थापित, आशा केवल निःशुल्क स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाला संगठन नहीं रहा, बल्कि समुदायों को रूपांतरित करने वाला एक आंदोलन बन गया।
डॉ. किरण (Dr Kiran Martin) का देखभाल का मॉडल केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अद्वितीय है। जब विश्व भर में शहरी स्लम स्वास्थ्य प्रयासों का गहन अध्ययन किया गया, तो एक सच्चाई सामने आई, बहुत कम, या कहें शायद ही कोई डॉक्टर स्लम समुदायों में रह कर लगातार, दीर्घकालिक और निःशुल्क सेवाएँ प्रदान करता है। अधिकांश स्लम स्वास्थ्य सेवाएँ मोबाइल यूनिटों, एनजीओ शिविरों या बाहरी क्लीनिकों पर निर्भर हैं। कीबेरा, माकोको, टोंडो या कोरैल जैसे स्थानों में समुदाय में बसे हुए डॉक्टर लगभग गुमनामी में रहते हैं। यहां तक कि पश्चिमी देशों में भी गरीब क्षेत्रों को संगठित स्वास्थ्य सेवाएँ मिलती हैं—परंतु स्लम-आधारित नहीं। इस वैश्विक परिदृश्य में, दिल्ली की स्लम बस्तियों में रहकर सेवा करना डॉ. किरण मार्टिन का निर्णय एक दुर्लभ चिकित्सीय साहस का उदाहरण बना—जो बताता है कि डॉक्टर कहाँ होने चाहिए और किसकी सेवा करनी चाहिए।
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डॉ. किरण मार्टिन और उनकी टीम ने अपने “सिस्टम-स्ट्रक्चर-प्रोसेस” दृष्टिकोण और जमीनी स्तर पर महिलाओं को सशक्त बनाने के निरंतर प्रयासों के माध्यम से सामुदायिक-नेतृत्व वाले स्वास्थ्य देखभाल का एक सशक्त मॉडल विकसित किया। स्थानीय महिलाओं—विशेषकर लेन वॉलंटियर्स जैसी संरचनाओं—की नेतृत्व क्षमता और व्यवहार परिवर्तन को पोषित करके उन्होंने हाशिए पर बसे समुदायों को भी अपने स्वास्थ्य और कल्याण की ज़िम्मेदारी लेने में सक्षम बनाया। आशा की बस्तियों में उनके द्वारा किए गए निरंतर कार्य के अद्भुत नतीजे देखे गए: हर गर्भवती महिला को कम से कम तीन प्रसवपूर्व जांच मिलती है, सभी प्रसव अस्पतालों या प्रशिक्षित पेशेवरों द्वारा होते हैं, और शिशु मृत्यु दर केवल 13 प्रति 1,000 तक गिर गई है—जो राष्ट्रीय औसत का आधा है। पिछले पाँच वर्षों में कोई मातृ मृत्यु नहीं हुई है, और टीकाकरण तथा सामान्य जन्म भार दर लगभग सार्वभौमिक हो चुके हैं। इन उत्कृष्ट स्वास्थ्य परिणामों ने व्यापक परिवर्तन को जन्म दिया है—महिलाएँ नागरिक अभियानों, स्वच्छता पहलों और बेहतर सार्वजनिक सेवाओं के लिए सतत नेतृत्व कर रही हैं।
स्वास्थ्य के अलावा, डॉ. मार्टिन ने झुग्गीवासियों और स्थानीय प्रशासन के बीच की दूरी को भी कम किया। उन्होंने समुदायों को नगरपालिका कर्मचारियों के साथ संवाद करना सिखाया ताकि सार्वजनिक शौचालयों का रखरखाव हो सके—जो अक्सर एकमात्र स्वच्छता सुविधा होती है। महिलाओं की सुरक्षा चिंताओं को पहचानते हुए उन्होंने सार्वजनिक शौचालयों में रोशनी लगाने की वकालत की, जिससे लैंगिक हिंसा के ख़तरों को कम किया जा सका।
डॉ. मार्टिन ने शिक्षा, डिजिटल साक्षरता, अवसंरचना सुधार और उच्च शिक्षा की राहें भी खोलीं। कभी ओआरएस की कतार में खड़े बच्चे अब विश्वविद्यालयों में हैं। जो लड़कियाँ कभी गरीबी के कारण चुप थीं, आज वे एंबेसडर, प्रोफेशनल और प्रशासक बन चुकी हैं। और एक पेड़ के नीचे डॉक्टर की कहानी अब दिल्ली की 100 स्लम बस्तियों में बदली हुई लाखों ज़िंदगियों की कहानी बन चुकी है।
यह सिर्फ़ स्वास्थ्य सेवा की बात नहीं है। बात है एक ऐसी दुनिया की जहाँ स्लम बस्तियों को अक्सर निराशा के क्षेत्र के रूप में देखा जाता है, डॉ. किरण मार्टिन ने उन्हें मानवीय क्षमता के परिदृश्य के रूप में देखा।
इसीलिए डॉ. किरण मार्टिन (Dr Kiran Martin) की यात्रा मायने रखती है। उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा। सिर्फ़ बीमारियों का इलाज करने वाली डॉक्टर ही नहीं, बल्कि न्याय की सेविका, उम्मीद की निर्माता और उन लोगों की निडर आवाज़ बनीं जिन्हें दुनिया भूल जाना चाहती थी।
मानवता के प्रति डॉ. किरण के योगदान को पूरी दुनिया ने सराहा है। 2002 में उन्हें भारत के माननीय राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 2023 में एक विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर ऑफ लेटर्स (ऑनोरिस कॉज़ा) और 2024 में मेलबर्न विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर ऑफ लॉज़ (ऑनोरिस कॉज़ा) की मानद उपाधि प्रदान की, उनके उस परिवर्तनकारी कार्य के लिए, जिसने नई दिल्ली की स्लम बस्तियों में लगभग दस लाख लोगों को सशक्त किया। उनकी सेवा हर उस बच्चे में जीवित है जिसे टीका लगाया गया, हर उस लड़की में जो सपने देखने का साहस करती है, हर उस माँ में जो अपनी आवाज़ उठाती है, और हर उस युवा में जो अपनी कहानी फिर से लिखता है।