Tuesday, October 7, 2025
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Anant Chaturdashi : अनन्त चतुर्दशी अर्थात अनन्त चौदस की कथा

by KhabarDesk
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Anant Chaturdashi

Anant Chaturdashi :  अनन्त चतुर्दशी अर्थात अनन्त चौदस पूरी धूमधाम के साथ मनाई जाती है। अनन्त शब्द में ही सब समाहित है, जिसका अर्थ है ना आदि है और न अंत वही तो अनंत है। ऐसे श्री विष्णु भगवान को समर्पित है यह अनंत चतुर्दशी। क्षीरसागर में शेषनाग जी की शैय्या पर शयन कर रहे विश्व के कण कण में अणु रूप में व्याप्त सर्वव्यापी विष्णु ही तो यत्र -तत्र-सर्वत्र हैं । इसीलिए वह अपने अनंत रूपों में विद्यमान होकर अनंत हैं।  उन्हें पाना इतना आसान नहीं हर जगह ढूंढ़ते हुए जब मनुष्य थक जाता है तभी वह अथक प्रयास करने पर ही मिलते हैं । जगत के पालनहार श्री विष्णु जी को समर्पित यह दिन पूर्णता की पूरक पूर्णिमा के एक दिन पूर्व भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है । एक और दस दिन के बाद गणपति जी की बिदाई देते भारी मन तो दूसरी ओर अनंत के आगमन की ख़ुशी। यही तो संसार है और उस लीलाधर की लीला को समझाने का अपना ही अनूठा ढंग । जो आया है वह जायेगा तभी तो वह स्थान खाली होने पर दूसरा आयेगा ।

अनन्त चतुर्दशी अर्थात अनन्त चौदस की कथा

कथा :-अपना सब कुछ राजपाट सहित द्यूतक्रीड़ा में हारने के बाद जब युधिष्ठिर अपने भाईयों एवं द्रौपदी के साथ वन में कष्टमय जीवन बिता रहे थे तो श्रीकृष्ण उनसे वन में मिलने आये। उस समय युधिष्ठिर ने उनसे इस कष्ट से मुक्ति का उपाय पूंछा । तब श्री कृष्ण ने उनसे अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की बात कही । जिसे बाद में युधिष्ठिर ने अपने सभी भाइयों एवं द्रौपदी के साथ करके महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त कर हस्तिनापुर का राज्य पाया ।

अनंत चतुर्दशी की कथा :-प्राचीन काल में कौण्डिल्य नामक ऋषि थे जिनकी पत्नी का नाम सुशीला था। वह सदा ही अनन्त चतुर्दशी का व्रत करते हुये उसका चौदह गांठों वाला रेशम के धागे से बना अनन्त सूत्र अपने बायें हाथ में पहनती जिससे उनका सुख वैभव एक राजा के समान था और उन्हे आज्ञाकारी संतान पुत्र रूप में प्राप्त हुई । एक दिन क्रोध वश कौण्डिल्य ऋषि ने अपनी पत्नी के सूत्र को तोड़ कर हवन कुंड में डाल दिया जिससे वह जल गया । इस कारण उनका सब कुछ नष्ट हो गया ।

अब दाने-दाने को तरसते कौण्डिल्य ऋषि दुखी होकर दीनबंधु भगवान विष्णु की शरण में गये । उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देते हुये कहा कि :-तुमने मेरे अनन्त भगवान के रूप का निरादर करते हुये मेरे संकट हरण चौदह सूत्र जो चौदह भुवन के कष्ट हरण करता है उसे जलाकर जो अपराध किया यह उसी का दंड है जो आज तुम भोग रहे हो । अब पुन:यदि तुम अपने इस अपराध का निराकरण चाहते हो तो मेरे अनन्त रूप की पूजा करते हुये अन्नचौदस का व्रत कर रेशम के धागे में *ऊँअनन्ताय नम:* कहते हुये मंत्र का जाप करते चौदह गांठ लगाकर विधिवत उसका पूजन कर दाहिने हाथ में बांधे तथा स्त्री के बायें हाथ में । इससे तुम्हारे सारे कष्टों का हरण अनन्त भगवान करेंगे ।

इस प्रकार करने पर कौण्डिल्य मुनि को अपना खोया हुआ सम्मान मिला । इस बारे में मुझे अपने बचपन की बात याद आ रही है, जब हमारे पिताजी इस व्रत को करते हुये हम सबको अपने पास बिठाते और एक कटोरे में दूध लेकर उसमें आटे की लोई लेकर कहते देखो यह क्षीर सागर है और यह मंदराचल पर्वत जिसे मैं इसमें घुमाऊंगा तब तुम सभी मुझसे प्रश्न करना क्या ढूंढ़ रहे हो और मैं जवाब दूंगा *अनन्त* प्रश्न :-का ढिग ढोरे अर्थात् इसमें क्या ढूंढ़ रहे हो? जवाब :-अनन्त भगवान को ।

प्रश्न:-पाये ।
जवाब:-धाये तो पाये ।

यह सब चौदह बार कहते बाद में पिता जी उस दूध को किसी वृक्ष या तुलसी में डाल कर वह आटे की लोई का मंदराचल पर्वत गाय को खिलाते अंत में हम सभी के हाथों में रक्षा सूत्र बांधा जाता जो पुन: इसी अनंत चतुर्दशी के दिन उतार कर नया बंधता । यह अनन्त चौदस की कथा है जिसमें व्रती अंत में चौदह पुये ब्राह्मण को देकर स्वयं दूध या दही के साथ उसे खाते । अब यह सब कथाओं में ही रह गया है ।

उषा सक्सेना

डिस्क्लेमर: इस आलेख में दी गई जानकारी सामान्य संदर्भ के लिए है और इसका उद्देश्य किसी धार्मिक या सांस्कृतिक मान्यता को ठेस पहुँचाना नहीं है। पाठक कृपया अपनी विवेकपूर्ण समझ और परामर्श से कार्य करें।

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