Govardhan Puja : दीपावली के दूसरे दिन ही गोवर्धन की पूजा की जाती है । गाय ही जिनकी अटूट सम्पत्ति है और उसका संवर्धन करने वाला वह पर्वत जहां गायों को लेकर गोप ग्वाल सभी चरवाहा बन कर उन्हें चराने ले जाते हैं ।जो उनकी गायों का भरण पोषण करता है ऐसे उस गोवर्धन गिरि की पूजा करने के स्थान पर हम इंद्रदेव की पूजा क्यों करें? श्री कृष्ण ने यही प्रश्न किया इन मिष्टान्नों पर तो हमारा अधिकार है, यह हम सबको खिलाइये और गायों को जो हमें पुष्ट करती हैं ।
श्रीकृष्ण के परम्पराओं के विरोध में यह कहने पर पहले तो सभी ने इंद्र के कोप से बचने के लिये उनकी बात का विरोध किया । बाद में उसकी उपयोगिता समझ कर सभी उनकी बात से सहमत हो गये । और इंद्र की पूजा के स्थान पर गोवर्धन गिरि की ओर छकड़ों में भर कर मिष्टान्न एवं पकवान लेकर चल दिये। वहां पहुंच कर अभी वह गोर्वधन गिरि की पूजा कर गोपालकों को प्रसाद दे ही रहे थे कि इंद्रदेव ने क्रोधित होकर अपना विकराल रूप धारण कर मूसलाधार वर्षा करते हुये वॹपात किया । उस समय सभी की रक्षा के लिये श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया सारे गोप ग्वाल अपनी लाठी लेकर उसको सहारा देते हुये खड़े हो गये ।
इंद्रदेव ने सात दिन तक अपनी जोर आजमाइश की परंतु श्रीकृष्ण के आगे वह हार गये और अंत में अपनी पराजय स्वीकार करते हुये श्री कृष्ण को गोविन्द गिरिधारी कहकर सम्मानित किया । तब से लेकर आज तक दीपावली के दूसरे दिन प्रसन्नता मेंं हर्षित हुये उल्लास से भर कर इस दिन गोधन पूजन के रूप में मनाते हुये मौन व्रत धारण कर नृत्य करते हुये निकलते हैं। विज्ञान की दृष्टि से देखें तो गोवर्धन गिरि गायों के वहां नित्य चरने जाने से उनके द्वारा उत्सर्जित गोबर के ढेर से ही उसका निर्माण हुआ । गोबर सूख जाने पर हल्का भार रहित हो जाता है । शुष्क हो जाने से जमीन पर उसकी पकड़ भी नहीं रहती । इसीलिए उन्होंने शरणस्थल के रूप में गोवर्धन का चुनाव किया । प्रतिदिन चरवाहा के रूप में जाने वाले सभी गोप ग्वाल वहां के चप्पे चप्पे से परिचित थे। सामूहिकता में शक्ति होती है उन सभी की सामूहिक शक्ति और सहयोग की भावना से कार्य करने पर कुछ भी असंभव नहीं ।
आज भी गायों के चराने ले जाने वाले मौनियां व्रत धारण कर उल्लास से भर नाचते हुये गांव की सीमा पार कर जाते हैं । ऐसे में सभी उनका स्वागत कर भेंट में उन्हें नये वस्त्र और मिष्टान्न तथा धन आदि देकर संतुष्ट करते हैं । अपनी गायों को अच्छे से नहला धुला कर वह उन्हें सजाते संवारते हैं । अब न कहीं वह जंगल रहे और न गोपाल ग्वाल । फिर भी हमारी सनातन भारतीय संस्कृति और सभ्यता में वह रचे बसे हैं । जै गोविंदा जै गोपाल ।
ऊषा सक्सेना
डिस्क्लेमर: इस आलेख में दी गई जानकारी सामान्य संदर्भ के लिए है और इसका उद्देश्य किसी धार्मिक या सांस्कृतिक मान्यता को ठेस पहुँचाना नहीं है। पाठक कृपया अपनी विवेकपूर्ण समझ और परामर्श से कार्य करें।