Monday, July 14, 2025
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नवदुर्गा का सातवां रूप कालरात्रि: देवी महाकाली का यह रूप भक्तों का रक्षक और शत्रु विनाशक है

Navratri Saptami Puja

by KhabarDesk
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Navratri Saptami Puja

Navratri Saptami Puja :
ऊँ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
जय दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहस्वधा नमोस्तुते।

नौ दुर्गा का सातवां रूप कालरात्रि, महाकाली के रूप में मानव शरीर में इनका स्थान आज्ञा चक्र के बाद सातवीं ग्रंथि सहस्रार चक्र माना गया है, जहां यह महाकाल के साथ रमण करती नवसृजन की ओर बढ़ती हैं। वह सृष्टि की उद्घोषिका है। दुष्टों के दैत्य रूप संहार की देवी।

पौराणिक कथा के अनुसार पार्वती जब वन में शिव जी को प्राप्त करने के लिये  घोर तप कर रहीं थी तो अचानक उनका शिकार कर भक्षण करने के लिये जंगल के वनराज सिंह ने उन पर आक्रमण कर दिया। तब बिना भयभीत हुये देवी पार्वती ने उन्हें अपने तप, शक्ति और साहस से पराजित कर अपने अधीन कर उसे अपना वाहन बना लिया। अब वह सिंहवाहिनी होकर उस घनघोर जंगल में निर्भय होकर अकेले ही विचरण करती। एक दिन शुम्भ -निशुम्भ के दूतों ने उन्हें विचरण करते देख कर उनके रूप सौंदर्य की प्रशंसा अपने स्वामी से करते हुये कहा कि, वह नारी सभी प्रकार से आपके वरण करने योग्य है। संसार की सभी दुर्लभ वस्तुओं एवं स्वर्ग लोक पर भी अपना अधिकार करने के पश्चात अब आप उसे अपनी पत्नी बनाईये। दैत्यराज शुम्भ ने अपने दूत को देवी  के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर भेजा। देवी ने दूत से कहा :-

“यदि तुम्हारे स्वामी मुझसे विवाह करना चाहते हैं तो पहले मुझसे युद्ध कर मुझे पराजित करें। उनके विजेता होने पर ही मैं उनसे विवाह करूंगी। ऐसी मेरी प्रतिज्ञा है”। दूतों ने यह बात अपने राजा शुम्भ से कही, ‌तब देवी की ऐसी गर्वीली वाणी सुनकर शुम्भ ने अपने सैनिकों को कहा कि यदि वह स्वेच्छा से नही आती तो उसे बांध कर लाओ। देवी पार्वती के भीषण तप के कारण उस समय तक उनकी त्वचा का रंग स्याह काला होने से वह काली हो गई थीं। रौद्र रूप धारण कर उन्होने शुम्भ की सेना को मार भगाया। दैत्यों से युद्ध करने के लिये ही देवी पार्वती ने अपना यह महाकाली का रूप धारण किया था।
देवी महाकाली के कालरात्रि का यह स्वरूप स्वयं महाकाल को भी भयभीत करने वाला है। स्याहकाली अंधियारी रात के समान काला काला रंग, गले में चमकती विद्युत मुंडमाला।  नागिन सी लहराती केशराशि। गर्दभ पर सवार एक हाथ में खड्ग दूसरे में खप्पर, माता का यह भयंकर रूप भक्तों की रक्षा करने शुभंकरी शत्रु विनाशक है।

योग निद्रा:-विष्णु जी के अंग से उत्पन्न महाकाली विष्णु जी की बहिन होकर सदा योग निद्रा के रूप में उन्हें साधनारत करती हैं। विष्णु जी के शयन के समय उनके ही कान के मैल से मधु और कैटभ की उत्पत्ति हुई। वह कमल के ऊपर ब्रह्मा जी को बैठा देख उन्हें भक्षण करने दौड़े। विष्णु जी के न जागने पर ब्रह्मजी विष्णु जी को उन दैत्यों से युद्ध करने के लिये जगाने के लिए देवी योग निद्रा की स्तुति करते हुये उनकी शरण में गये। ‌तब उनकी प्रार्थना पर देवी ने विष्णु जी के ध्यान से नि:सृत होकर उन्हें जगाया। देवी के इस रूप का वर्णन दुर्गा सप्त शती के प्रथम अध्याय में है। विष्णु जी ने जाग्रत होकर उनसे युद्ध करते हुये उनकी ही इच्छानुसार उनका वध कर ब्रह्मा जी को भयमुक्त किया । सभी देवताओं ने तब उनकी स्तुति की।

देवी भद्रकाली, श्री कृष्ण की आराध्या कुलदेवी हैं। महाभारत के युद्ध के समय श्री कृष्ण ने अर्जुन के साथ देवी को प्रसन्न करने के लिये तप किया था वरदान में उन्होंने महाभारत युद्ध में पांडवों की विजय मांगी थी। पांडवों की विजय के पश्चात् अर्जुन के श्रेष्ठ घोड़े रथ सहित उन्हें भेंट में चढ़ाये थे। कुरूक्षेत्र में जिस जगह मां भद्रकाली का मंदिर हैं उनके सामने ही बहुत बड़ा कूप है। कहते हैं देवी सती के दक्ष-यज्ञ में अपने प्राण त्याग के बाद जब शिव जी विक्षिप्त होकर उनके शव को अपने कांधे पर ही लटकाये भटक रहे थे तभी विष्णु जी ने उनसे उसशव को अलग करने के लिये चक्र से उन के क्षत विक्षत अंगों को अलग किया था। जहां भी वह अंग गिरे वह सभी 51शक्तिपीठ बने।

यहां पर देवी के दाहिने पैर की घुटने से नीचे वाला हिस्सा गिरने से यह कूप बना। महाभारत युद्ध में विजय के पश्चात् अर्जुन के रथ को अश्वों सहित श्री कृष्ण ने देवी को धन्यवाद देते हुये इसी कूप में समर्पित किया था। तब से मन्नत पूरी होने पर अश्व की बलि देने की प्रथा चली। अब लोग सोने चांदी या मिट्टी का अश्व चढ़ाते हैं। कूप पर जाल बिछा दिया गया है। देवी भद्रकाली श्रीकृष्ण की बहिन भी है जो जसोदा मैया की‌ बेटी के रूप में जनमी थी। जिसे वसुदेव जी ने अपने पुत्र कृष्णकी रक्षा के लिये अपने मित्र नंदबाबा से बदल कर कंस को सौंपा था। कंस के उसे पत्थर पर पटकते समय देवी ने उसके हाथ से छूटकर आकाश में उड़कर कहा था, तेरा शत्रु जन्म ले चुका है,अब तू नहीं बच सकता। यह कहकर विंध्याचल पर्वत पर विंध्यवासिनी देवी के रूप में स्थित हो गई। माता के अद्भुत शांत रूप के दर्शन मन को शांति देते हैं।

या देवी सर्वभूतेषु काली रूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः:।।

उषा सक्सेना

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